वैदिक साहित्य में अर्थ - एक चिन्तन 

Sthaptyam
Vol. 1
Issue.10
डाॅ. नीलिमा पाठक


हमारे मनीषियों ने व्यक्तित्व के चार पक्ष (पुरूषार्थ) धर्म, अर्थ काम और मोक्ष को परिभाषित किया है। अर्थ्यते प्राथयते इति अर्थः अर्थात् जो चाहा जाय वह अर्थ है। अर्थ का विशेष अभिप्राय धन से किया गया है। धन किसे कहते है। दधन्तिः फलन्ति जो फले-फूले, धन्य-धान्य, फलवान वृक्ष, उत्तम गोधन। पुनः धनति स्वनिति अर्थात-खनखनाय (बजे) जैसे सोना, चाँदी ताँम्बा इत्यादि। रोजगार-व्यापार के लिए अन्न, वस्त्र पात्र, उपकरण, आभूषण, गृहनिर्माण द्रव्य, भवनालंकरण, सामग्री सवारी, स्थलयान जलयान आदि अनन्त जीवनोपयोगी वस्तुओं को विनिमय के साधन के रूप को अर्थ कहते है अर्थ को धन सम्पति इत्यादि पर्यायवाची शब्दों से भी सम्बोधित किया जाता है। 
किसी भी राष्ट्र का उत्कर्ष मनुष्य के आर्थिक जीवन की सम्पन्नता और सुख-सुविधा पर निर्भर करता है। 
वैदिक ऋषियों ने धन के स्वामी के महत्व को समझते हुये उनके आदर में कई ऋचाओं की रचना की है जैसे- पवित्रं वै हिरण्यम् ऋग्वेद (1,164.45)
पुनाति एव एनं यो हिरण्यं विभर्ति (1,164.24)
आयुः हि हिरण्यम् (शतपथ ब्राह्मण )
श्रीः वै पशवः।
तत्कालीन समाज में अन्न का महत्व बहुत था क्योंकि कृषि एवं पशुओं के सहारे ही जीवनोपयोगी वस्तुयें प्राप्त होती थी। कृषि के साथ पशु अर्थ व्यवस्था के सुदृढ आधार थे।



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श्री वै पशुः अर्थात् पशुओं को घरों का ऐश्वर्य माना गया है। कृषि कार्य के अलावा पशु विनिमय के भी साधन थे।
देश की समृद्धि एवं ऐश्वर्य की वृद्धि के लिए परिश्रम को सर्वथा करणीय धर्म के रूप में वैदिक संस्कृति ने स्वीकार किया।
ऐतरेय ब्राह्मण कहता है- बैठे हुए का ऐश्वर्य बैठ जाता है, उठकर खडे हुए का खडा हो जाता है पैरों को फैलाकर पडे हुए का सो जाता है चलने वाले पुरूषार्थी का ऐश्वर्य अनुगामी बना रहता है। 
वैदिक ऋषि प्रकृति के अनावश्यक दोहन को भी दोष पूर्ण माना है और सचेत किया है कि हे इन्द्र हमारे अर्थ लोलुप शोषको को नष्ट कर उन्हें अन्धकार में डाल दीजिए। (अथर्ववेद 4.6.2)


जितेंद्र कुमार उपाध्याय
स्थापत्यम्