Sthapatyam
Volume. 1
Issue. 10
पी. वी. औसेफ
वास्तु शास्त्र में हर तरह के निर्माण के लिये निर्देश दिये गये है। वास्तु मण्डल में 9x9=81 पद गृह निर्माण के लिये और 8x8=64 पद मन्दिर निर्माण के लिये प्रयोग होता है। वास्तु मण्डल के सिद्धान्त ग्राम और शहर निर्माण में भी उपयोगी है पर वास्तु शास्त्र में होटल निर्माण के लिये किसी प्रकार की प्लानिंग की व्याख्या नहीं देखी जाती है। इसके पीछे शायद यही वजह रहा हो कि उस समय होटल का व्यापार नहीं था।
मनुष्यालय चन्द्रिका में राजगृह महल का वर्णन मिलता है जिसमें लीविंग रूम, रसोई घर, मनोरंजन घर, स्नान घर का वर्णन मिलता है। आधुनिक युग में होटल निर्माण के लिये इसी आधार पर काम किया जा सकता है। वास्तु शास्त्र वातावरण और उक्त स्थान की ऊर्जा को सन्तुलित करता है। निश्चित पद पर निश्चित देवों की स्थापना करने और निर्माण कार्य करने से उस स्थान पर साकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बन जाता है जिससे विकाश की गति बनी रहती है और वास्तु शास्त्र के सिद्धान्त में निम्नलिखित दिशाओं में वेध होने पर निम्न दोष देखे जाते हैं।
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पूर्व दिशा- पति-पत्नी के झगड़े
दक्षिण पूर्व - कोढ़
दक्षिण- शत्रु
दक्षिण-पश्चिम- संतान हानि
पश्चिम- धन हानि
उत्तर-पश्चिम- वात रोग
उत्तर- कुटुम्ब नाश
उत्तर-पूर्व- अन्न, धन का नाश
बडे़ प्लाटों में वास्तु के सिद्धान्त आसानी से लागू हो जाते हैं पर छोटे प्लाटों पर वास्तुपुरूष मण्डल को बैठाना मुश्किल है। इसके लिये वास्तु शास्त्र में विथि कल्पना नाम के सिद्धान्त की चर्चा है जिसमें उस स्थान को नौ भागों में बाँट दिया जाता है।
बहुत छोटे प्लाटों को विथि संकल्प नाम से वास्तु करने की चर्चा है जिसमें चार विथियाँ ब्रह्म विथि, देव विथि, मनुष्य विथि, और पिशाच विथि हैं। इन विथियों में पिशाच विथि को छोड़कर निर्माण का कार्य किया जाता है। इस तरह वास्तु शास्त्र में हर प्रकार भूखण्डों के लिये वास्तु का विधान है।
रेनु पाण्डेय
संपादक
स्थापत्यम्