फुलकारी कढ़ाई कला में समाज और संस्कृति का चित्रण

Sthapatyam
Vol. 5
Issue. 4
प्रो. ईला गुप्ता 
राजेन्द्र कौर


हस्तकरघा, चित्रकारी, स्थापत्य और मूर्ति कला से समाज की संस्कृति और सभ्यता का ज्ञान होता है। भारतीय हस्तशिल्प कला को संग्रहालयों में सुरक्षित रखा गया है जिससे कि अपने पुरातन इतिहास से सभी अवगत होते रहेें। 
प्रत्येक प्रान्त की अपनी कला विशेष है जिसमें से फुलकारी कढ़ाई कला पंजाब प्रान्त की विशेषता है। पूर्व में पंजाब की औरतें अधिक शिक्षित नहीं थीं पर उनके हाथों में रसोई, सिलाई, कढाई-बुनाई की कला भरपूर थी जिसमें उनका अतिरिक्त समय व्यतित होता था। फुलकारी कढाई कहाँ से आई थी, इसका पता तो नही लगाया जा सका पर इसके साक्ष्य वेद, महाभारत, गुरूग्रन्थ साहिब और पंजाब के लोक गीतों में मिलते हैं। 
पूर्व में हमारी संस्कृति कैसी थी इसका पता भी कला के द्वारा होता है। संस्कृति और समाज अलग होते हुये भी एक-दूसरे के पूरक है। समाज से संस्कृति का निर्माण होता है। समाजिकरण के द्वारा संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाई जाती है।



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कला अभिव्यक्ति का माध्यम है। मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति चित्रकारी, नृत्य, लेखन इत्यादि माध्यमों से होता रहा है। इन माध्यमों को अनेक तरह से सहेजकर रखा जाता है। फुलकारी कला संस्कृति को सहेजकर रखने की कला है। हालाँकि फुलकारी कपड़े पर की जाने वाली कढ़ाई कला है। इस कला के माध्यम से पंजाब की औरतें अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करतीं थीं। पीढ़ी दर पीढ़ी सुरक्षित यह कला बड़ो द्वारा छोटों को सिखाई जाती थी।
यह कढाई तीन प्रकार से की जाती है। फुलकारी, बाघ और चोप। प्रायः इस कढाई में प्रकृति का चित्रण किया जाता था पर कभी-कभी कथा कहानियाँ, दुःख सुख के भाव को भी उकेरा जाता था। पहले महिलाओं को इतनी स्वतंत्रता नहीं थी जितनी आज है। उनके मन के भाव भी फुलकारी में देखे जाते थे। हीर-राँझा, सोनी-महिवाल, शशी-पूना, मिर्जा-साहिबा आदि प्रेमियों के चित्रण भी इस कढाई कला में किये जाते थे। बच्चे के जन्म से मृत्यु तक के संस्कारों और उत्सवों का चित्रण इस कढाई के द्वारा किया जाता था। पुरूषों का अत्याचार स्त्रियों पर होता आया है जिसका चित्रण फुलकारी में देखा जाता है। फुलकारी कढाई में शुभ और अशुभ दोनों तरह के भाव शमिल थे जिससे समय विशेष को आसानी से समझा जा सकता था।
  
रेनु पाण्डेय
संपादक
स्थापत्यम्