भारतीय जीवन पद्धति में मन्दिर की वैज्ञानिकता 

Sthapatyam
Vol.1
issue.10
डाॅ. जयश्री 
डाॅ. पी. कृष्णा


भारतीय समाज में मन्दिरों का स्थान महत्वपूर्ण है। मन्दिरों के निर्माण में निश्चित प्रक्रिया का होना आवश्यक है। जिन मन्दिरों का निर्माण उस प्रक्रिया के अनुसार किया जाता है उनमें ऊर्जा भी अधिक होती है। गर्भगृह में देवता स्थापित किये जाते हैं। वहाँ ऊर्जा का प्रवाह अधिक होता है। मन्दिर के गर्भगृह में वैदिक श्लोक लिखी ताम्रपट्किा को मुख्य विग्रह के नीचे स्थापित किया जाता है। ताम्बे के प्लेट में पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति को शोषित करने का गुण होता है। जो व्यक्ति रोज मन्दिर जाता है और गर्भगृह की प्रदक्षिणा करता है उसके अन्दर उसकी ऊर्जा भी समाहित होती रहती है। यह वह घनात्मक ऊर्जा है जिससे हमारा जीवन स्वस्थ व सुखी होता है। मन्दिर का बजता हुआ घण्टा, कपूर और अगरबत्ती की खुशबू, फूलों की सुगन्ध और मन्दिर की ऊर्जा व्यक्ति को दुःख के घेरे से निकालकर शान्ति और सुख देती है। 
देवता को स्नान कराया हुआ जल औषधीय गुण से भरा होता है। क्योंकि उस में चन्दन और तुलसी मिला होता है। देवता की मूर्ति ऊर्जा से भरपूर होती है। भारतीय परिवेश में किसी भी नई वस्तु को देवता के चरणों में समर्पित करने का विधान है जिससे समर्पित वस्तु भी ऊर्जा से भर जाती है। 



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भारतवर्ष में मन्दिर निर्माण की प्रक्रिया 2000 वर्ष पूर्व प्रारम्भ हुई। पुराने समय में ईंट और लकड़ी से मन्दिर बनाये जाते थे जो टिकाऊ नहीं थे। बाद में पत्थरों से बनाये जाने लगे।
1200 ई. से 1700 ई. तक उत्तर भारत के मन्दिरों को मुगलों द्वारा तोड़ा गया। दक्षिण भारत के मन्दिर सुरक्षित रहे क्योंकि उधर मुगल नहीं गये। दक्षिण भारत और उत्तर भारत के मन्दिरों में काफी अन्तर देखा जाता है। दक्षिण भारत के मन्दिरों में विशाल गोपुरम देखे जाते है वहीं उत्तर भारत के मन्दिरों में गर्भगृह की ऊँचाई अधिक होती है। मन्दिरों का निर्माण वास्तु पुरूष मण्डल के हिसाब से किया जाता है। 1, 4, 9, 16, 25, 36, 49, 64, 81 और 1024, ये वास्तु पद विन्यास हैं जिनके पदों में देवताओं को स्थापित कर निर्माण कार्य किया जाता है। मन्दिर निर्माण के लिये 64 पद वास्तु को सर्वोत्तम माना जाता है। मन्दिरों के निर्माण कई प्रकार से किये जाते हैं। जिसमें रेखा देउल, खाकरा देउल, पीढ़ा देउल, मिश्रित मारू, गुर्जरा, कालींग आदि प्रकार के मन्दिर हैं। 
उत्तर भारत के मन्दिरों में पत्थर से बने भगवान के विग्रह पाये जाते हैं जबकि दक्षिण भारत में पँचलोहा से बने विग्रह देखे है। भारतवर्ष के प्रत्येक हिस्से में मन्दिर पाये जाते हैं। जिनकी बनावट में भिन्नता है पर श्र्रद्धा एक जैसी है जो पूरे भारतवर्ष को एक सूत्र में बाँध कर रखती है।
  
रेनु पाण्डेय
संपादक
स्थापत्यम्