Sthapatyam
Vol.2
Issue.11
आर्की. निधि पाण्डेय
सातवाहन सम्राटों के काल, लगभग दूसरी शताब्दी में दक्षिण भारत में बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार प्रारम्भ हुआ और स्तूप बनवाये गये जिसमें अमरावती भी एक था। अमरावती का बौद्ध स्तूप सभी स्तूपों में बड़ा और आकर्षक था।
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दक्षिण भारत में बौद्ध धर्म अधिक समय तक नहीं टिक पाया। लगभग चौथी शताब्दी आते-आते यहाँ से बौद्ध धर्म समाप्त हो चुका था। आंध्र प्रदेश के गुण्टुर जिले से 32 कि.मी. और विजयवाड़ा से 39 कि.मी. की दूरी पर कृष्णा नदी के दक्षिण दिशा में अमरावती नामक जगह है। लगभग 1344 ई. तक इस स्तूप का प्रयोग बौद्ध धर्मावलंबियों द्वारा किया जा रहा था पर उसके बाद इस स्तूप के कई भाग क्षतिग्रस्त होते चले गये। 1797 ई. में काॅलीन, मेकेंजी नामक एक ब्रिटिश ऑफिसर ने इस जगह को देखा और इस बिखरे हुये धरोहर की सूचना एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल को दी, बाद में 1816 ई. में मेकेंजी ने इन बिखरे हुये अवशेषों को कलकत्ता म्यूजियम में रखवाया। 1840 में सर वाल्टर नामक अंग्रेज ने यहाँ की खुदाई करवाई। 1880 ई. में राबार्ट सावेल ने भी कुछ जगहों की खुदाई करवाई और अवशेषों को इकट्ठा किया। प्राप्त अवशेषों से अमरावती के स्तूप की जानकारी मिलती है कि इस स्तूप का हीनयान प्रकार से निर्माण प्रारम्भ हुआ और जो धीरे-धीरे महायान प्रकार में बदलने लगा।
यह एक बड़ा स्तूप था जिसकी गुम्बज का आधार 162 फीट था और प्रदक्षीणा पथ 30 फीट चौड़ा था। सम्पूर्ण संरचना 192 फीट में बना हुआ था और इसकी ऊँचाई लगभग 90-100 फीट के आस-पास थी। बाहरी रेलिंग की ऊँचाई लगभग 13 फीट की थी जिसमें तीन तीन कलात्मक पत्थर की धारियाँ बनी हुईं देखी जाती हैं। इनके प्रत्येक खंम्बो पर एक-एक छोटे स्तूप बने हुये थे। इस स्तूप के चारों तरफ खुला हुआ स्थान था।
बौद्ध स्मारक तो अब लगभग समाप्त हो चुके हैं, पर बचे हुये संगमरमर के भग्न अवशेष अभी भी ब्रिटिश, चेन्नई और कोलकाता के म्यूजियम में रखे हुये हैं। स्थापत्य की दृष्टि से अमरावती स्तूप के पत्थरों पर की गई कला सराहनीय है।
रेनु पाण्डेय
संपादक
स्थापत्यम्