भारतीय कला में द्यूत-क्रीडा

 


Sthapatyam
Vol.1
Issue.6
डाॅ. ओम प्रकाश लाल श्रीवास्तव


भारतीय संस्कृति एवं कला में द्यूत-क्रीडा एक प्रमुख अंग रहा है। ऋग्वेद के पूर्व काल से ही द्यूत-क्रीडा समाज में प्रचलित रही इसकी गणना चौसठ कलाओं में की गई है। द्यूत-क्रीडा मनोरंजन के साथ-साथ धन एकत्र करने का भी साधन है। ऋग्वेद में द्यूत (अक्ष के पासे) को विभीतक (बहेड़ा) के बड़े फल की तरह कहा गया है। खेलते समय कम्पन करता हुआ जुआड़ी को रोमांचक अनुभूति प्रदान करता है उसका सोना-जागना, सुख-दुःख सब पर पासे का नियन्त्रण होता है। जुआड़ी के परिवार वाले दुःखी होते हैं एवं वह ऋणी तथा चोरी के कर्म में प्रवृत्त होता है। (ऋग्वेद 10.34.1, 10.34.9, 10.34.10)
महाभारत काल का सर्वनाशी युद्ध भी द्यूत-क्रीड़ा के कारण ही हुआ था। शकुनि द्यूत-क्रीड़ा का विशेषज्ञ था वह द्यूत-क्रीड़ा का रहस्य बताते हुये कहता है कि दाॅव मेरा धनुष, अक्ष बाण है, अक्षों का भीतरी भाग धनुष की डोरी ओर पासा फेंकने का स्थान ही मेरा रथ है। महाभारत 2-56.-4
युधिष्ठिर द्वारा द्यूत-क्रीडा को पापकर्म कहने पर शकुनि अपने तर्को के द्वारा उन्हें गलत सिद्ध करता है। महाभारत 2.59.7-14, 2.61.1
द्यूत-क्रीडा के दुष्परिणाम से परिचित होने के कारण धृतराष्ट्र ने पहले ही उसके अवगुणों की चर्चा करके उसका विरोध किया। महाभारत 2-50,11-12
कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में द्यूत-क्रीडा की व्यवस्था किये जाने एवं जुआड़ियों से राजस्व वसूली तथा द्यूत-क्रीडा में कपटपूर्ण व्यवहार पर दण्ड का विधान, शुद्ध कौडी एवं पासा की व्यवस्था, दूसरे के कौडी एवं पासा को निषेध तथा जीते हुए धन पर कर तथा कौडी, पासा, अटल, द्यूतशाला की जमीन का किराया इत्यादि का वर्णन किया है। इस प्रकार द्यूत-क्रीडा पर राजकीय नियन्त्रण वह मनोरजंन के साधन के साथ-साथ राज्य के आय का भी स्रोत था। शूद्रक केे मृच्छकटिकम् में द्यूत-क्रीडा की चर्चा तथा विभिन्न दाँवों की भी चर्चा प्राप्त होती है। मृच्छकटिकम्-2.7-9
परम्परानुसार कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा को द्यूत-प्रतिपदा कहा जाता है। माना जाता है कि उस दिन पार्वती ने द्यूत-क्रीड़ा में शिव को हराया था जिसमें शिव दुखी तथा पार्वती प्रसन्न हुईं थी। इस प्रकार ये परम्परा आज तक कई स्थानों पर विद्यमान है और माना जाता है कि उस दिन जुआ जीतने से वर्ष मंगलमय और हारने से वर्षभर धन की हानि होती है। शिव-पार्वती की द्यूत-क्रीडा और तत्सम्बधी हास-परिहास के विविध प्रसंग साहित्य के साथ-साथ प्राचीन अभिलेखों और मूर्तियों में भी प्राप्त होते है।



Source: Author
अम्बिका दत्त व्यास रचित मंगलमणिमाला के (श्लोक -1182), रेड्डिशासन का अभिलेख, इन्द्रपाल का गौहाटी ताम्रपत्रलेख तथा युवराजदेव द्वितीय कालीन विलहरी प्रस्तर अभिलेख इन सन्दर्भ में विशेष रूप से शिव-पार्वती के द्यूत-प्रकरण की चर्चा की गई है जिसमें दाॅव पर चन्द्रमा आदि लगाने तथा पार्वती द्वारा उसे जीत लेने की कथा उल्लेखित है। द्यूत-क्रीडारत शिव-पार्वती की एलोरा, के गुफा संख्या 21 में विलासपुर जनपद में ताला के देवरानी मन्दिर में, रानी दुर्गावती संग्रहालय जवलपुर में प्रस्तर मूर्ति एवं अंकन उपलब्ध है।
इन उपरिसन्दर्भित विविध प्रसंगो से यह स्पष्ट है कि द्यूत को दुव्र्यसन माना जाता था किन्तु इसके बावजूद मनोरंजन के साधन के रूप में द्यूत-क्रीडा भारतीय संस्कृति एवं कला का एक प्रमुख अंग रहा है।


जितेन्द्र कुमार उपाध्याय
स्थापत्यम्