ऋग्वेद में व्रत की अवधारणा

ऋग्वेद में व्रत की अवधारणा


व्रत धर्माचरण का अभिन्न अंग है। व्रत शब्द की व्युत्पत्ति ‘वृ’ (वरण करना) धातु से हुआ है। इसी धातु से वर शब्द निकला है जो किसी कन्या के लिये अभिभावक द्वारा कई व्यक्तियों में से चुना जाता है। वरण करना, वरण करने वाले व्यक्ति की इच्छा या संकल्प पर निर्भर रहता है। अत: ‘वृ’ का अर्थ इच्छा करना भी है। इस प्रकार जब व्रत शब्द ‘वृ’ से निकला है और उसके साथ ‘त’ लगा हुआ है तो व्रत का अर्थ हुआ जो संकल्पित है या केवल संकल्प या इच्छा।
जो व्यक्ति शक्ति सम्पन्न होता है या अधिकारी होता है उसकी इच्छा अन्य व्यक्तियों के लिये आदेश है या कानून होता है। भक्तगण ऐसा विश्वास करते हैं कि देवों ने कुछ कानून अथवा निर्देश निर्धारित किये हैं जिसका वे स्वयं या अन्य जीवगण अनुसरण करते हैं। इससे विधि विधान या कानून का भाव स्पष्ट हो जाता है। किसी उच्चाधिकारी का आदेश आरोपित होता है तो उसका अर्थ होता है आज्ञापालन करने की कर्तव्यता या अनुग्रह बन्धन। बाद में वही कर्तव्यता परम्परानुगत आचारी या व्यवहारों का रूप पकड़ लेती है। 



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जब लोग ऐसा विश्वास करते हैं कि उन्हें आचार्यो या देवों द्वारा निर्देशित कुछ कर्म करने चाहिये तो धार्मिक उपासना या कर्तव्य के भाव की उत्पत्ति होती है। जब कोई व्यक्ति देवों की प्राप्ति के लिये धार्मिक उपासना या अनुग्रह की या अपने आचरण और भोजन पर विशिष्ट रोक लगाता है तो वह पुनीत संकल्प या धार्मिक आचार-कर्म का रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार ‘वृ’ से उत्पन्न व्रत शब्द के कतिपय अर्थ हैं। 
आदेश या विधि, आज्ञापालन या कर्तव्यता, धार्मिक या नैतिक व्यवहार, धार्मिक उपासना या आचरण, पुनीत या गम्भीर संकल्प या स्वीकरण या आचरण सम्बन्धी कोई भी संकल्प। ऋग्वेद में जहाँ भी व्रत शब्द आया है उसका अर्थ उपर्युक्त अर्थो में बैठ जाता है। 
ऋग्वेद  में 220 बार ‘व्रत’ शब्द आया है। ऋग्वेद में धर्मन् शब्द कभी पुल्लिंग तथा कभी विशेषण के रूप में प्रयोग हुआ है (ऋ ०१/१८६/१, १०/९२/२)। १०/२९/३ (त्वं धर्माण आसते) में पुल्लिंग है अन्य स्थानों पर यह स्पष्ट रूप से नपुसंक लिंग में है। (अतो धर्माणि धारयन्) १/२२/१८, ५/२६/८, ९/६४/१ इन मन्त्रों में धर्म का अर्थ है ‘धार्मिक कर्म या यज्ञ’ जो स्पष्टत: व्रत के सन्निकट आ जाता है। कहीं-कहीं धर्मन् का अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता पर कुछ श्लोको में धर्मन् का अर्थ व्रत के रूप में स्पष्ट हो जाता है। (७/८९/५) श्लोको में यह स्पष्ट होता है कि जब हम असावधानी के कारण अपने धर्मो के विरोध में हो जायें,
हे वरुण! हमें उस पाप के कारण हानि न पहुँचाओ।
यद्यपि ऋग्वेद के कुछ मन्त्रों में व्रत एवं धर्मन् के अर्थ मिलते जुलते प्रतीत होते हैं पर कुछ ऐसे भी मन्त्र हैं जहाँ तीनों (ऋत्त, व्रत एवं धर्मन्) या केवल दो ही पृथक-पृथक रूप से प्रकट हो जाते हैं। यहाँ एक बात लिख देना आवश्यक है, अथर्ववेद के उन अंशो में जिन्हें पाश्चात्य विद्वान पाश्चात्यकालीन ठहराते हैं ‘धर्म’ शब्द ‘धर्मन’ के रूप में प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद के ५/६३/७ में ऐसा कहा गया है- हे विज्ञ मित्र एवं वरूण!
 आप लोग स्वभावत: असुर जैसी आश्चर्यमय शक्ति से अपने धर्मो की रक्षा करते हैं। आप ऋत के नियमों के अनुसार सम्पूर्ण विश्व पर शासन करते हैं, आप स्वर्ग में सूर्य की जो देदीप्यमान रथ के सदृश्य है स्थपित करते हैं। ‘व्रत एवं धर्मन्’ ऋग्वेद के ५/७२/२ एवं ६/७०/३ में भी प्रयुक्त हुये हैं। ऋत एवं व्रत १/६५/२, २/२७/८, ३/४/७ , एवं १०/६५/८ में आये हैं। ऋत वह ब्रह्माण्डीय व्यवस्था है जो अतिप्राचीन काल से विराजमान है। ‘व्रत’ का अर्थ है, वे विधि-विधान जो सभी देवों या पृथक-पृथक देवों द्वारा व्यक्तिगत रूप से निर्धारित हैं। ‘धर्मन्’ का अर्थ है धामिक कर्म-काण्ड या यज्ञ यज्ञादि।
कालान्तर में ऋत्त की धारणा धुँधली पड़ती चली गई और सत्य ने उसे आत्मसात कर लिया। ‘धर्मन्’ एक व्यापक धारणा बन गया और ‘व्रत’ समाज के सदस्यों के रूप में किसी व्यक्ति के द्वारा संकल्पित संकल्पों और आचरणों सम्बन्धी नियमों में सीमित होकर रह गया।


रेनु पाण्डेय 
संपादक
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