वास्तुशास्त्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र शब्द
एक चिन्तन
वास्तुशास्त्र के ग्रन्थों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र शब्दों का प्रयोग किया गया है। भूमि व भवन के लिए इन शब्दों का प्रयोग प्राय: सर्वत्र दिखाई देता है। ब्राह्मणादि वर्ण विशेष ही पारिभाषित भूमि व भवन में निवास करे ऐसी धारणा बनाने से पहले हमें इन शब्दों का प्रायोगिक व प्रासंगिक अर्थ समझना होगा। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र शब्द वेदों, ब्राह्मण-ग्रन्थों, धर्मसूत्रों एवं संहिता-ग्रन्थों में वर्ण एवं जाति दोनों अर्थों के लिए प्रयोग किया गया है। ये शब्द कहीं वर्ण व्यवस्था को पारिभाषित करते हैं तो कहीं जाति व्यवस्था को।
इस प्रकार शास्त्रों में वर्ण एवं जाति शब्द समान अर्थ के साथ-साथ दूसरे अर्थ में भी प्रयुक्त हैं। वर्ण शब्द की अवधारणा वंश, संस्कृति, चरित्र एवं व्यवसाय पर आधारित है जिसमें व्यक्तिगत नैतिकता व बौद्धिकता का समावेश पाया जाता है। यह स्वाभाविक व्यवस्था का परिचायक है। वर्ण, समाज या वर्ण-विशेष के उच्च मापदण्डों की व्याख्या करता है। वर्ण, जन्म से प्राप्त अधिकारों व विशेषाधिकार पर बल नहीं देता है। जाति, जन्म एवं आनुवंशिकता पर बल देती है। यह उच्च मापदण्डों के बिना आचरण पर, केवल विशेषाधिकार पर आधारित है। वास्तुशास्त्र में प्रयोग किये गये ब्राह्मणादि शब्द वर्ण व्यवस्था के द्योतक हैं न कि जाति व्यवस्था के। अत: इस सम्बन्ध में वर्ण व्यवस्था एवं उनके कर्मों, गुणों को ध्यान में रखकर वास्तुशास्त्र में उल्लििखत नियमों का विश्लेषण करना होगा।
अत: ग्रन्थों में वर्णित वर्णों के गुणों एवं कर्मों को ध्यान में रखकर तथा उसी दृष्टिकोण से वास्तुशास्त्र का अध्ययन कर वर्तमान में उसकी प्रासंगिकता एवं उपादेयता देखनी होगी।
भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था के उद्गम एवं उसकी विशिष्टताओं पर प्राचीन वाङ्गमय से लेकर पाश्चात्त्य लेखकों की कृतियाँ मौजूद हैं। पाश्चात्त्य लेखकों में सिडनी जेम्स मार्क लो ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ए विजन ऑफ इण्डिया, द्वितीय संस्करण, १९०७, पृ. २६२-२६३ में एवं जार्ज मेरेडिथ ने अपनी पुस्तक यूरोप एण्ड एशिया, १९०१, पृ. ७२ में वर्ण व्यवस्था की बहुत प्रशंसा की है। इसीप्रकार विलियम एडवर्ड बरगार्ड डू बोइस ने भी प्रशंसा की है जबकि कुछ ने बहुत ही कड़ी आलोचना एवं भत्र्सना की है। सर हेनरी समनर मेने ने एशियण्ट ला, १९३०, पृ. १७ तथा एम.ए. शेरिंग ने हिन्दू ट्राइब्स एण्ड कास्ट्स, अंक ३, पृ. २९३ में इसे विनाशकारी परम्परा मानकर भत्र्सना की है। जन्म एवं व्यवसाय पर आधारित जाति व्यवस्था प्राचीन काल में फारस, रोम, जापान आदि स्थानों में भी थी, परन्तु समय के प्रवाह में वहाँ समाप्त हो गयी और भारतवर्ष में उसकी निरन्तरता बनी रही।
ऋग्वेद में 'वर्ण शब्द रंग, प्रकाश या जन-समूहों के लिए आया है। 'यो दासं वर्णमधरं गुहाक:' (ऋग्वेद २.१२.४) तथा 'उभौ वर्णावृषिरुग्र: पुपोष (ऋग्वेद १.१७९.६), जिन्होंने (इन्द्र ने) दास रंग को गुहा (अन्धकार में रखा) तथा (क्रोधी ऋषि अगस्त्य) ने दो वर्णों की कामना की, के आधार पर काले और गोरे दो प्रकार के जन समूह थे।
ब्राह्मणश्च शूद्रश्च चर्मकर्तोन्यायच्छेते।
देव्यो वै वर्णो ब्राह्मण: असूर्य: शूद्र:।
तैत्तिरीय ब्राह्मण, १.२.६
ब्राह्मण दैवी वर्ण है और शूद्र असूर्य वर्ण है अर्थात् असूर्य वर्ण शूद्र जाति हुआ। ऋग्वेद में आर्यों एवं दासों या दस्यु लोगों के बारे में बहुत लिखा है। ऋग्वेद (१०.२२.८) के अनुसार दस्यु एवं दास दोनों एक ही हैं।
दस्यु लोग देवताओं के नियमों को न मानने वाले, यज्ञ न करने वाले, जिनकी बोली स्पष्ट एवं मधुर न हो, गूँगे एवं चपटी नाक वाले बताये गये हैं।
ऋग्वेद के मन्त्र १०.९०.१२ को छोडक़र कहीं भी वैश्य एवं शूद्र शब्द का उल्लेख नहीं है। ऋग्वेद में ब्राह्मण शब्द किसी जाति के लिए नहीं आया है। तैत्तिरीय ब्राह्मण (३.९.१४) में 'ब्रह्म वै ब्राह्मण: क्षत्रं राजन्य:' ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों के लिए आया है।
निरुक्त में सन्दर्भित कथा है कि ऋष्टिषेण ऋषि के दो पुत्रों में बड़े बेटे देेवापि के इन्कार करने पर छोटा बेटा शन्तनु राजा बना, बाद में देवापि ने शन्तनु का पुरोहित बनकर यज्ञ करवाकर वर्षा करवायी।
देवापिश्च आष्र्टिषेण: शंतनुश्च कौरव्यौ भ्रातरौ बभूवतु:।
स शंतनु: कनीयान् अभिषेचयांचक्रे। देवापि: तप: प्रतिपेदे।
तत: शंतनो: राज्ये द्वादश वर्षाणि देवो न ववर्ष। तमूचु: ब्राह्मणा: - 'अधर्म: त्वयाऽऽचरित:, ज्येष्ठं भ्रातरम् अन्तरित्य अभिषेचितम्। तस्मात् ते देवो न वर्षति' इति। स शंतनु: देवापि: शिशिक्ष राज्येन। तमुवाच देवापि: - 'पुरोहित: ते असानि, याजयानि च त्वा' इति।
निरुक्तम्, २.१०
कुरुवंश में ऋष्टिषेण के दो पुत्र देवापि और शन्तनु हुए। छोटे भाई शन्तनु ने अपना राज्याभिषेक करा लिया और देवापि तपस्या करने लगा। इससे शन्तनु के राज्य में बारह वर्षों तक वर्षा नहीं हुई। ब्राह्मणों ने उससे कहा- 'तुमने अधर्म किया है, बड़े भाई को छोड़ कर तुमने अभिषेक करा लिया। इसी से तुम्हारे यहाँ पानी नहीं बरसता।' शन्तनु ने देवापि को राज्य लेने को कहा। देवापि ने उत्तर दिया- 'मैं तुम्हारा पुरोहित रहूँगा और तुम्हें यज्ञ कराऊँगा'।
यहाँ पर विचारणीय है कि शन्तनु का अधर्म राज्य करना नहीं है वरन् बड़े भाई के स्थान पर राज्याभिषेक है तथा अधर्म का परिहार है यज्ञ। इन दोनों राज्यधर्म व पौरोहित्य कर्म का निर्वहन एक ही पिता के दो पुत्र करते हैं न कि भिन्न कर्मों के लिए भिन्न जाति विशेष का व्यक्ति।
कुविन्मा गोपां करसे जनस्य कुविद् राजानं मघवन्नृजीषिन्।
कुविन्म ऋषि पपिवांसं सुतस्य कुविन्मे वस्वो अमृतस्य शिक्षा:।।
ऋग्वेद, ३.४३.५
हे इन्द्र! तू मुझे अनेक बार गोपति, नृपति, धनपति एवं अनेक बार सोम पीने वाला ऋषि बना और मुझे क्षय रहित धन दे। इस प्रकार एक ही व्यक्ति राजा, धनवान् या ऋषि बन सकता था।
यत्राष्र्टिषेण: कौरव्य ब्राह्मण्यं संशितव्रत:।
तपसा महता राजन् प्राप्तवानृषिसत्तम:।।
सिन्धुद्वीपश्च राजर्षिर्देवापिश्च महातपा:।
ब्रह्मण्यं लब्धवान् यत्र विश्वामित्रस्तथा मुनि:।।
महाभारत, शल्यपर्व, ३९.३६-३७
जहाँ कठोर व्रत का पालन करने वाले मुनिश्रेष्ठ आषर््िटषेण ने बड़ी तपस्या करके ब्राह्मणत्व पाया था तथा जहाँ राजर्षि सिन्धुद्वीप, महान् तपस्वी देवापि और विश्वामित्र मुनि ने भी ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था।
विश्वामित्रो वशिष्ठश्च मतङ्गो नारदादय:।
तपोविशेषै: सम्प्राप्ता उत्तमत्वं न जातित:।।
शुक्रनीतिसार:, ४.४.३८
(क्षत्रिय से उत्पन्न हुए) विश्वामित्र, (अप्सरा से उत्पन्न हुए) वशिष्ठ, (साधारण वर्ण में उत्पन्न हुए) मतङ्ग, (दासी पुत्र) नारद आदि विशेष तप के द्वारा उत्तमता को प्राप्त हुए थे, जाति से नहीं।
विश् शब्द ऋग्वेद में 'मानुषीर्विश:', 'मानुषीषु विक्षु', 'मानुषीणां विशाम्' प्रयोग जन समूह के लिए आया है। ऋग्वेद के मन्त्र 'यत्पाञ्चजन्यया विशेन्द्र घोष असृक्षत्' (८.६३.७) में विश् शब्द सम्पूर्ण जाति का द्योतक है। कुछ विद्वानों के अनुसार श्रुति ग्रन्थों के बाद के ग्रन्थों में 'दास' का अर्थ है 'गुलाम' (क्रीतभृत्य)। दास या दस्यु जातियाँ हराकर गुलाम बना दी गयीं और वे सेवा करने लगीं। वैदिक कालीन ग्रन्थों, ब्राह्मण ग्रन्थों एवं स्मृति ग्रन्थों के आधार पर विजित दस्यु या दास शूद्रों में परिणित हो गये।
तैत्तिरीय संहिता के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र एक ही समाज के अंग हैं- 'रूचं नो धेहि ब्राह्मणेषु रूचं राजसु नस्कृधि। रूचं विश्येषु शूद्रेषु मयि धेहि रूचा रूचम्'(५.७.६.३-४) अर्थात् 'हमारे ब्राह्मणों में प्रकाश भरो, हमारे मुख्यों (राजाओं) में प्रकाश भरो, वैश्यों एवं शूद्रों में प्रकाश भरो और अपने प्रकाश से मुझमें भी प्रकाश भरो'।
ब्राह्मण ग्रन्थों के समय से वर्ण-व्यवस्था सुदृढ़ हो गई थी। देवताओं, ऋतुओं, वृक्षों, ग्रहों, आदि सभी में वर्ण विभाजन किया गया था। अग्नि एवं बृहस्पति देवताओं में ब्राह्मण; इन्द्र, यम, वरुण क्षत्रिय; वसु, रुद्र, विश्वेदेव, मरुत् वैश्य तथा पूषा शूद्र के रूप में वर्णित हैं। ऋतुओं को भी वर्णों के आधार पर ब्राह्मणादि वर्ण में विभाजित किया गया। इसी क्रम में गुणों के आधार पर भूमि को भी ब्राह्मणी, क्षत्रिया, वैश्या व शूद्रा में पारिभाषित किया गया।
सिता रक्ता च पीता च कृष्णा चैव क्रमान्मही।
विप्रादीनां हि वर्णानां सर्वेषामथवा हिता।।
समराङ्गणसूत्रधार, ८.४८
सफेद भूमि ब्राह्मण के लिए, क्षत्रिय के लिए लाल भूमि, वैश्य के लिए पीली भूमि और शूद्र के लिए काले रङ्ग की पृथ्वी प्रशस्त मानी गई है।
ब्रह्मैव व्वसन्त: क्षत्रं ग्रीष्मो व्विडेव व्वर्षास्तस्माद्ब्राह्मणो व्वसन्त ऽआदधीत ब्रह्म हि व्वसन्तस्तस्मात्क्षत्रियो ग्रीष्म ऽआदधीत क्षतœँ हि ग्रीष्मस्तस्माद्वैश्यो व्वर्षास्वादधीत विड्ढि व्वर्षा:।।
शतपथ ब्राह्मण, २.१.३.५
बसन्त ऋतु ब्राह्मण, ग्रीष्म ऋतु क्षत्रिय एवं वर्षा ऋतु वैश्य है।
झष: कर्कटो वृश्चिको भूमिदेवा धनुर्मेषसिंहास्तथा क्षत्रियाश्च।
वृष: कन्यका नक्रराशिर्विराश्च नृयुग्मं तुला कुम्भराशिश्च शूद्रा:।।
मुहूर्तसंग्रहदर्पणम्, २.२४
कर्क, वृश्चिक, मीन राशि ब्राह्मण; मेष, सिंह, धनु राशि क्षत्रिय; वृष, कन्या, मकर राशि वैश्य तथा मिथुन, तुला, कुम्भ राशि शूद्र हैं।
ब्राह्मणौ जीवशुक्रौ च क्षत्रियौ भौमभास्करौ।
सोमसौम्यौ विशौ प्रोक्तौ राहुमन्दौ तथान्त्यजौ।।
मुहूर्तसंग्रहदर्पणम्, ३.८
ग्रहों में बृहस्पति, शुक्र ब्राह्मण हैं; सूर्य, मंगल क्षत्रिय हैं; चन्द्र, बुध वैश्य हैं; शनि, राहु अन्त्यज ग्रह हैं।
सर्वाधिक श्लोकों वाला वास्तु ग्रन्थ अपराजितपृच्छा में अश्वों को भी वर्णों के आधार पर परिभाषित किया गया है। यहाँ पर अश्वों के कई भेद में चार भेद उत्तम माने गये तथा उन्हें जाति की नहीं वर्ण की संज्ञा दी गई-
.. .. .. अश्वाश्चातुर्वण्र्यं च कथ्यते।।
विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा अश्वाश्चत्वार उत्तमा:।
अपराजितपृच्छा, ८०.३-४
१. ब्राह्मण, २. क्षत्रिय, ३. वैश्य और ४. शूद्र - ये चार प्रकार के उत्तम अश्व होते हैं।
चातुर्वण्र्यस्तु सौवर्णो मेरुश्चोल्बमय: स्मृत: ............ पूर्वत: श्वेतवर्णस्तु ब्राह्मण्यं तस्य तेन वै।। पीतश्च दक्षिणेनासौ तेन वैश्यत्वमिष्यते। भृङ्गिपत्रनिभश्चैव पश्चिमेन समन्वित:। तेनास्य शूद्रता सिद्धा मेरोर्नामार्थकर्मत:।। पाश्र्वमुत्तरतस्तस्य रक्तवर्ण स्वभावत:। तेनास्य क्षत्रभाव: स्यादिति वर्णा: प्रकीर्तिता:।।
मत्स्य पुराण, ११३, १२, १४-१६
चारों ओर अनेक प्रकार की रंगों वाली पाश्र्व भूमियों से संयुक्त वह सुमेरु प्रजापति ब्रह्मा के समान सभी गुणों से संयुक्त है। पूर्व दिशा से श्वेतवर्ण वाला वह सुमेरु पर्वत अव्यक्त ब्रह्मा की नाभि के बन्धन से उत्पन्न हुआ है, इसी श्वेतवर्णता से उसमें ब्राह्मण के गुणों की समता मानी गयी है। दक्षिण दिशा से देखने में वह पीले रंग का है, इसी से वह वैश्यवृत्ति का माना गया है। पश्चिम दिशा से उसकी शोभा भ्रमर के पंख के समान श्याम है, इसी से इसके मेरु नाम की सार्थकता अर्थ और कर्म दोनों से-सिद्ध होती है तथा इसकी शूद्रता भी सिद्ध होती है। उस सुमेरु पर्वत का उत्तरी भाग लाल रंग का है, जिससे इसका क्षत्रियत्व सिद्ध होता है।
चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
श्रीमद्भगवद्गीता, ४.१३
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै:।।
श्रीमद्भगवद्गीता, १८.४१
श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण चारो वर्णों का आधार गुण व कर्म बताते हैं।
इसी क्रम में वास्तु ग्रन्थ समराङ्गणसूत्रधार चार वर्णों की व्याख्या करता है-
तत: स चतुरो वर्णानाश्रमांश्च व्यभाजयत्।।
.. .. .. ब्राह्मणास्तेऽभवंस्तदा।।
.. .. .. क्षत्रियास्त इहाभवन्।।
.. .. वैश्यस्य कथितो धर्मस्तद्वत्।।
.. ते शूद्रजातयो जाता नातिधर्मरताश्च ये।।
समराङ्गणसूत्रधार, ७.९-१६
तदनन्तर अनुशासन के लिए महाराज पृथु ने प्रजाजनों के मध्य चार वर्णों एवं चार आश्रमों का विभाग किया। उनमें से जो वेद पढ़ते थे और अच्छे आचार-विचार वाले अध्येता थे, उन संयमी विद्वान् एवं चरित्रवान् जनों को ब्राह्मण बनाया।
.. जिनके शरीर हृष्ट पुष्ट और लम्बे-चौड़े थे वे क्षत्रिय हुए।
.. १. चिकित्सा, २. खेती, ३. वाणिज्य, ४. स्थापत्य, ५. पशु-पालन यह पाँच वैश्य के धर्म नियत किए गए।
.. जिनका न बहुत आदर होता था और न अधिक पवित्र रहते थे और न तो धर्म-परायण ही थे, ऐसे क्रूर स्वभाव वाले प्रजाजन शूद्र कहलाये।
प्रज्ञाव्वृद्धिय्र्यशोलोकपक्ति: प्रज्ञा व्वद्र्धमाना चतुरो धम्र्मान्ब्राह्मणमभि निष्पादयति ब्राह्मण्यम्प्रतिरूपचय्र्या यशोलोकपक्तिं लोक: पच्यमानश्चतुर्भिद्र्धम्र्मैब्र्राह्मणं भुनक्यर्चया च दानेन चाच्येयतया चावध्यतया च।।
शतपथ ब्राह्मण (११.४.१.१) के अनुसार ब्राह्मणों के चार विलक्षण गुण हैं- (१) ब्राह्मण्य (पवित्र पैतृकता), (२) प्रतिरूपचय्र्या (पवित्र आचरण), (३) यश एवं (४) लोकपक्ति (लोगों को पढ़ाना या पूर्ण बनाना)। जब लोग ब्राह्मण से पढ़ते हैं या पूर्ण होते हैं तो उसे चार विशेषाधिकार देते हैं (१) अर्चा (आदर), (२) दान, (३) अप्र्यकता (कोई कष्ट नहीं देना) एवं (४) अवध्यता।
शतपथ ब्राह्मण ५.१.१.१२ में कहा गया है 'राजा वै राजसूयेनेष्ट्वा भवति न वै ब्राह्मणो राज्यायालमवरम्' ब्राह्मण राज्य के योग्य नहीं है।
इस प्रकार वेद, शतपथ ब्राह्मण, याज्ञवल्क्य स्मृति, विष्णुधर्मसूत्र, वशिष्ठधर्मसूत्र, गौतम, बौधायन शुल्वसूत्र, महाभारत, पुराण आदि कतिपय ग्रन्थों के आधार पर ब्राह्मणों के जीवन का आदर्श मितव्ययि, सादा जीवन उच्चविचार, धन संचय न करना, संस्कृति सम्बन्धी रक्षण एवं विकास करना है। आपातकाल के लिए गौतम ६.६ एवं ६.७ में कहा है 'आपत्काले मातापितृमतों बहुभृत्यस्यानन्तरका वृत्तिरिति कल्प:। तस्यानन्तरका वृत्ति: क्षात्रोऽभिनिवेश:। एवमप्यजीवन्वैश्यमुपजीवेत्।' यदि ब्राह्मण शिक्षण, पौरोहित्य एवं दान से अपनी जीविका न चला सके तो वह क्षत्रियों की वृत्ति कर सकता है। यदि वह भी सम्भव न हो तो वैश्य वृत्ति कर सकता है।
ऐतरेय ब्राह्मण ३८.३ एवं ३९.३ में कहता है 'क्षत्रियोऽजनि विश्वस्य भूतव्य गोप्ताजनि विशामत्ताजनि ........... ब्राह्मणो गोप्ताजनि धर्मस्य गोप्ताजनि।' जब राजा का राज्याभिषेक हो जाता था तो यही समझा जाता था कि एक क्षत्रिय सबका अधिपति - ब्राह्मणों एवं धर्म की रक्षा करने वाला - उत्पन्न किया गया है।
यहाँ पर विचारणीय यह है कि क्षत्रिय का राज्याभिषेक करने पर राजा सबकी रक्षा नहीं करता था वरन् राजा का राज्याभिषेक करने पर क्षत्रिय सबकी रक्षा करता था अर्थात् जाति नहीं क्षात्रधर्म ही प्रमुख माना गया।
वेदाध्ययन करना, यज्ञ करना एवं दान देना ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य के आवश्यक कत्र्तव्य माने गये। वेदाध्यापन, यज्ञ कराना, दान लेना ब्राह्मणों के विशेषाधिकार माने गये। युद्ध करना एवं प्रजाजन की रक्षा करना क्षत्रियों के तथा कृषि, पशुपालन, व्यापार आदि वैश्यों के विशेषाधिकार बनाये गये। शूद्र जनों के लिए सेवा भाव की व्यवस्था बनायी गयी।
उपरोक्त उदाहरणों में जाति एवं वर्ण शब्द में विभेद करके तत्कालीन व्यवस्था की वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता विचारते हैं। पूर्व में लिखे इन ग्रन्थों के समय से वर्तमान युग में पठन-पाठन, शासन व्यवस्था व्यापारादि में बहुत परिवर्तन आ चुका है। गुरुकुल विश्वविद्यालयों में, राजमहल विधानसभाओं एवं लोकसभा में, छोटी-छोटी लोहारों की भ_ियाँ बड़े-बड़े इस्पात कारखानों के रूप में जैसे परिवर्तन आ चुके हैं। आजकल ब्राह्मण जाति के लोग भी शास्त्रों में वर्णित शूद्रकर्म करते हैं। शूद्र जाति के लोग ब्राह्मण का कर्म करते हैं। अत: वर्तमान जाति व्यवस्था को नकारते हुए उपरोक्त वर्णित वर्ण व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए वास्तुशास्त्र की प्रासंगिकता एवं उपादेयता देखनी होगी। विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, अनुसन्धानशालाओं आदि में जहाँ आर्थिक लाभ के दृष्टिकोण को न अपनाते हुए ब्राह्मणी-भूमि या ब्राह्मणों के लिए आये जैसे शब्दों की प्रासंगिकता हमें खोजनी होगी, जहाँ ब्राह्मण के शास्त्र-विहित कत्र्तव्यों का पालन किया जाता है। ब्राह्मणों के जीवन का आदर्श जैसा पहले कहा जा चुका है हमें यहाँ खोजना होगा।
ब्राह्मणों के आदर्श में है सादा जीवन, उच्च विचार और वत्र्तमान में ये विशेषताएँ समाज में अन्य नौकरी पेशा व व्यवसायिक वर्गों के सापेक्ष में विश्वविद्यालयों व अनुसन्धानशालाओं में पायी जाती हैं। विश्वविद्यालय धन संचय नहीं करते, ये अनुदान पर ही चलते हैं। संस्कृति सम्बन्धी विकास कार्य या उनको जीवित रखना विश्वविद्यालय करते हैं। इस प्रकार वर्तमान में ब्राह्मणोचित कत्र्तव्यों का पालन विश्वविद्यालयों, अनुसन्धानशालाओं में हो रहा है।
मुम्बई विश्वविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, विक्रम विश्वविद्यालय, जम्मू विश्वविद्यालय, बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय, तेलुगु विश्वविद्यालय, कन्नड़ विश्वविद्यालय, केरल विश्वविद्यालय, कलकत्ता विश्वविद्यालय, राजस्थान विश्वविद्यालय;, तमिल विश्वविद्यालय आदि तमाम विश्वविद्यालय सभी प्रदेशों में ब्राह्मणी भूमि पर बने हुए हैं।
इसी प्रकार देश की लोकसभा तथा विधानसभाएँ (प्राचीन अथवा नवीन भवन) क्षत्रिया भूमि पर बने हुए हैं। इस देश में बड़े से बड़े अधिकारी भी शूद्रा भूमि पर निवास करते पाये जाते हैं, क्योंकि वास्तुशास्त्र में नौकरी-पेशा को दास-वृत्ति में लिया जाता है। इसी प्रकार सफल व्यापारिक संकुलों, औद्योगिक प्रतिष्ठानों की स्थिति भी उन्हीं भूमियों पर है जहाँ शास्त्र में धनागम विशेष के लिए बताया गया है। भिन्न-भिन्न प्रकार की भूमि पर व्यवसाय विशेष होता है ऐसे उदाहरण सर्वत्र मौजूद हैं।
इस प्रकार वर्तमान जाति व्यवस्था व वास्तु-शास्त्र का तादात्म्य स्थापित होता नहीं दिखाई देता है। उपरोक्त वर्णित वर्ण व्यवस्था के अनुसार ही इसकी प्रासंगिकता एवं उपादेयता दृष्टिगोचर हो रही है। अत: जाति सूचक शब्दों का जाति के लिए अर्थ न करके तत् सम्बन्धी गुण एवं व्यवहार (वर्ण व्यवस्था) की व्याख्या करनी चाहिये। ब्राह्मणी या ब्राह्मण के लिए आये शब्दों का अर्थ ब्राह्मणोचित कत्र्तव्य करना चाहिये, अर्थात् ब्राह्मणी भूमि पर ब्राह्मणोचित कत्र्तव्यों का पालन सुगमता एवं सफलतापूर्वक सम्पन्न होते हैं, इसी प्रकार क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र शब्द से अर्थ करना होगा कि उस भूमि पर तत्-तत् वर्णों के उचित कत्र्तव्यों (वर्णव्यवस्था) का पालन सुगमता से सम्पन्न होगा, जो कि किसी भी जाति का व्यक्ति कर सकता है। वास्तव में भूमि विशेष में वर्ण-विशेष का गुण स्वाभाविक रूप से प्रकृति-प्रदत्त होता है जो किसी जाति विशेष के लिए नहीं होता।
भिन्न-भिन्न वर्ण वाली भूमि अपने वर्ण के पारिभाषित गुणों में अभिवृद्धि करती है किसी भी जाति का व्यक्ति जिस वर्ण वाली भूमि पर निवास करता है उसके स्वाभाविक गुणों में भूमि के वर्ण वाले गुणों की अभिवृद्धि होती है। वास्तव में भूमि विशेष के पारिभाषित वर्ण वाले गुणों के अनुरूप कार्य ही उस भूखण्ड पर सफल होते हुए सर्वत्र पाये जाते हैं। ब्राह्मणी भूमि पर विश्वविद्यालयों का निर्माण, क्षत्रिया भूमि पर संसद व विधानसभाओं का निर्माण, धनागम के लिए पारिभाषित भूमि पर सफल व्यापारिक संकुलों व औद्योगिक प्रतिष्ठानों का निर्माण, शूद्रा भूमि पर सरकारी व गैर सरकारी कर्मचारियों के आवासीय कालोनियों का निर्माण सर्वत्र पाया जाता है। यदि ब्राह्मण वर्ण के गुणों से युक्त भूमि पर या भवन में व्यापारिक या औद्योगिक प्रतिष्ठानों का निर्माण पाया जाता है तो उनमें ब्राह्मण वर्ण के गुणों की अभिवृद्धि पायी जाती है अर्थात् ब्राह्मण वर्ण के गुणों में वर्णित निर्धनता एवं माँगना खाना की तरह बैंकों व अन्य सुलभ स्थानों से ऋण लेने की निरन्तर प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। ब्राह्मण वर्ण के गुणों में धन सञ्चय करना नहीं वर्णित है अत: ऐसे उद्योग या व्यापार लाभ की स्थिति में न आकर अपनी पूँजी नहीं बढ़ा पाते हैं कर्ज के रूप में लिया हुआ धन ही दिखाई देता है। ईमानदारी से कार्य करते हुए ये अन्य को भी सलाह मशविरा देते हुए पाये जाते हैं। ब्राह्मणी भूमि पर निर्मित उद्योग या व्यापार, अपने कर्मचारियों व अन्य को लाभ देता है, प्रतिष्ठित होता है, अपनी शाखाएँ भी बढ़ा सकता है परन्तु लाभ की स्थिति में नहीं होता है। वास्तुशास्त्र की प्रासंगिकता एवं उपयोगिता उस औद्योगिक या व्यापारिक संस्थान की भूमि व भवन के ब्राह्मण वर्ण वाले गुणों में परिवर्तन कर वैश्य वर्ण के गुणों की अभिवृद्धि करने या वैश्य वर्ण वाली भूमि पर ही ऐसे उद्योग धन्धों को स्थापित करने की है।
कार्य एवं उद्देश्य के अनुरूप ही वर्ण के गुणों से युक्त भूमि व भवन का चुनाव उस कार्य एवं उद्देश्य की अभिवृद्धि करता है